नई दिल्ली: अमेरिका समेत यूरोप की तरफ से बैंक ऑफ रशिया के फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व को फ्रीज कर दिया गया है। यह फैसला ग्लोबल इकनॉमिक सिस्टम पर एक तगड़ा वार माना जा रहा है। दुनिया भर में ट्रेडिंग के लिए डॉलर को एक अहम माध्यम की तरह इस्तेमाल किया जाता है। हर देश की करंसी अलग-अलग होती है, लेकिन दुनिया में ट्रेड करने के लिए किसी एक करंसी की जरूरत थी, जो डॉलर से पूरी होती है। ऐसे में हर देश के पास डॉलर का एक फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व रहता है, जिसका इस्तेमाल कर के वह देश की जरूरत की चीजों को आयात करता है। वहीं इससे सबसे अधिक फायदा होता है अमेरिका को, क्योंकि वह अपने डॉलर से किसी भी देश से अपनी जरूरत की कोई भी चीज खरीद सकता है और इसके लिए उसे सिर्फ कुछ अतिरिक्त डॉलर छापने होंगे। रूस के फॉरेक्स का सीज़ होना क्यों दे रहा है टेंशन? फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व को फ्रीज करना कोई नई बात नहीं है। अफगानिस्तान, क्यूबा, वेनेजुएला और ईरान जैसे देशों के फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व पर पहले भी बैन लगाया जा चुका है। हालांकि, रूस का मामला कुछ अलग है। रूस दुनिया के लिए एक गैस स्टेशन की तरह है और उसके फॉरेन एक्सचेंज को सीज करने से दुनिया के तमाम देशों को ये चिंता हो गई है कि कहीं अगला नंबर उसका ना लग जाए। वहीं अगर आप डॉलर से बाहर निकलना चाहें तो यह इतना आसान नहीं। रूस भले ही अपनी निर्भरता डॉलर से घटा रहा है, लेकिन छोटे देशों के लिए ऐसा कर पाना भी मुमकिन नहीं है। वहीं ग्लोबल ट्रेड के लिए कोई न कोई माध्यम तो चाहिए ही। बिटकॉइन नहीं ले सकता है डॉलर की जगह अब एक बड़ा सवाल है कि क्या डॉलर की जगह बिटकॉइन ले सकता है? वैसे तो बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरंसी से बहुत सारे ट्रांजेक्शन आसान हो सकते हैं, लेकिन इसे किसी देश की तरफ से जारी नहीं किया जाता तो ऐसे में यह डॉलर की जगह नहीं ले सकता है। बिटकॉइन को बिना किसी बैंकिंग सिस्टम के ही इलेक्ट्रॉनिक तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है और ट्रांजेक्शन की जा सकती हैं। वहीं अधिकतर क्रिप्टोकरंसी में भारी उतार-चढ़ाव आता है। ऐसे में अगर कोई देश इस माध्यम में फॉरेक्स रखता है तो उसे भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। एक ग्लोबल क्रॉस बॉर्डर पेमेंट्स फर्म रिपल (Ripple) के अनुसार हर मिनट करीब 2 लाख डॉलर की ट्रांजेक्शन बिटकॉइन से रूबल में की जाती हैं। डिजिटल करंसी हो सकता है विकल्प? डॉलर के एक विकल्प की तरह सीबीडीसी यानी सेंट्रल बैंक डिजिटल करंसी को देखा जा सकता है। हालांकि, इसमें चीन एक रिस्क की तरह उभर कर सामने आ सकता है। भारत समेत कुछ देश डिजिटल करंसी लाने का एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं और चीन ई-युआव के जरिए इस रेस में सबसे आगे है। हालांकि, आगे का रास्ता और चुनौती भरा हो सकता है, क्योंकि सवाल ये उठता है कि आखिर किस डिजिटल करंसी को डॉलर की तरह एक माध्यम के तौर पर चुना जाएगा, ताकि ग्लोबल ट्रेड किए जा सकें। सेंट्रल बैंक ऑफ हांगकांग और थाईलैंड एक ज्वाइंट वेंचर इथेनॉन-लियॉनरॉक प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है, ताकि सेटलमेंट सिस्टम के लिएक ब्लॉकचेन तकनीक बनाई जा सके। वहीं बहुत ही कम देश ऐसे होंगे जो डॉलर के उस विकल्प वाले सेटलमेंट सिस्टम का हिस्सा बनना चाहेंगे, जिस पर चीन का सबसे अधिक प्रभाव हो। अमेरिका के रिस्क से निकल कर चीन के रिस्क में जाना मतलब कुएं से खाई में जाने जैसा हो सकता है। करंसी का बास्केट हो सकता है विकल्प अगर देखा जाए तो कई देशों की करंसी का एक बास्केट इस समस्या का समाधान हो सकता है। ऐसा सिस्टम बनाने के लिए कई देशों को साथ आना होगा और मल्टीलेट्रल सेटअप बनाना होगा, जैसे आज के वक्त में ग्लोबल ट्रेड रूल्स के लिए डब्ल्यूटीओ यानी विश्व व्यापार संगठन है। हाल में हुई घटनाओं से दुनिया डॉलर में फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व रखने को लेकर थोड़ी चिंतित हुई है और अब एक नए फाइनेंशियल सिस्टम पर काम करने की जरूरत है, जिसके जरिए ग्लोबल ट्रेडिंग आसान हो सके। (लेखक ASK Wealth Advisors के मैनेजिंग पार्टनर और सीआईओ हैं। यह विचार निजी हैं।)
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