छत्तीसगढ़ में पूरे 2019-20 कारोबारी साल में जितने परिवारों ने मनरेगा के तहत काम किया था, उसके 90 फीसदी ने चालू कारोबारी साल 2020-21 में सिर्फ 40 दिनों में ही मनरेगा के तहत काम कर लिया। आंध्र प्रदेश के लिए यह आंकड़ा 86 फीसदी और उत्तर प्रदेश के लिए 68 फीसदी है। अन्य प्रमुख राज्यों का भी लगभग ऐसा ही हाल है। इससे पता चलता है कि लॉकडाउन का रोजगार के अवसरों पर कितना बुरा असर पड़ा है। साथ ही यह भी पता चलता है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) आम लोगों के लिए जीविका अर्जित करने का कितना बड़ा साधन है।
मजदूरों को कहीं काम नहीं मिल रहा, मनरेगा एकमात्र विकल्प
मध्य प्रदेश में पिछले संपूर्ण कारोबारी साल में जितने परिवारों ने मनरेगा के तहत काम किया, उसके 53 फीसदी ने चालू कारोबारी साल के 40 दिनों में मनरेगा के तहत काम कर लिया। कर्नाटक में यह आंकड़ा 46 फीसदी और गुजरात के लिए यह आंकड़ा 55 फीसदी है। चालू कारोबारी साल के शुरू में ही मनरेगा के तहत कामगारों की इतने बड़े पैमाने पर उपलब्धता से पता चलता है कि बाजार में कितना कम रोजगार है। मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के कार्यकर्ता निखिल डे ने कहा कि इससे रोजगार के लिए बेचैनी का पता चलता है। कहीं काम नहीं मिल रहा है। मनरेगा एकमात्र विकल्प है।
मजदूर बढ़े, लेकिन काम नहीं बढ़ा
मनरेगा के लिए कामगारों की उपलब्धता जिस तेजी से बढ़ी है, उतनी तेजी से काम नहीं बढ़ा है। आंध्र प्रदेश में इस साल जितने श्रम दिवस पैदा हुए, वह पिछले पूरे कारोबारी साल का महज 34.3 फीसदी है। जबकि इस दौरान जितने परिवारों ने मनरेगा के लिए काम किया, वह पिछले पूरे साल मनरेगा के लिए काम करने वालों की तुलना में 86 फीसदी है। छत्तीसगढ़ में चालू कारोबारी साल में जितने श्रम दिवस पैदा हुए वह पिछले संपूर्ण कारोबारी साल के मुकाबले 39 फीसदी से थोड़ा ही अधिक है। उत्तर प्रदेश में चालू कारोबारी साल के 40 दिनों में पिछले संपूर्ण कारोबारी साल के मुकाबले 20 फीसदी श्रम दिवस पैदा हुए। इस दौरान पिछले संपूर्ण कारोबारी साल के मुकाबले 68 फीसदी परिवारों ने मनरेगा के तहत काम कर लिया है। इस तरह से श्रम दिवस का अनुपात मध्य प्रदेश में 19 फीसदी, कर्नाटक में 18 फीसदी और गुजरात में 22 फीसदी है।
हर दिन हर कामगार को नहीं मिल रहा काम
एक अन्य विशेषज्ञ ने कहा कि कामगारों की उपलब्धता और पैदा हुए श्रम दिवस के आंकड़े में अंतर के आधार पर माना जा सकता है कि प्रशासन काम देने के लिए रोटेशन की नीति का पालन कर रहे हैं। हर मजदूर हर रोज काम नहीं कर रहा। मजदूर रोटेशन के आधार पर काम कर रहे हैं। इसका मतलब यह है कि मनरेगा में मांग के आधार पर मजदूर उपलब्ध नहीं हो रहे हैं, बल्कि मजदूरों की उपलब्धता के आधार पर काम को विभाजित किया जा रहा है।
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